Friday, May 1, 2020


अब तूही बता तुझे क्या कहूं
बीमारी कहूं कि बहार कहूं
पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं
संतुलन कहूं कि संहार कहूं
अब तूही बता तुझे क्या कहूं

मानव जो उदंड था
पाप का प्रचंड था
सामर्थ का घमंड था
मानवता को कर रहा खंड खंड था
नदियां सारी त्रस्त थी
सड़के सारी व्यस्त थी
जंगलों में आग थी
हवाओं में राख थी
कोलाहल का स्वर था
खतरे में जीवो का घर था
चांद पर पहरे थे
वसुधा के दर्द बड़े गहरे थे

फिर अचानक तू आई
मृत्यु का खौफ लाई
संसार को डराई
विज्ञान भी घबराई
लोग यूं मरने लगे
खुद को घरों में भरने लगे
इच्छाओं को सीमित करने लगे
प्रकृति से डरने लगे

अब लोग सारे बंद हैं
नदिया स्वच्छंद हैं
हवाओं में सुगंध है
वनों में आनंद है
जीव सारे मस्त हैं
वातावरण भी स्वस्थ हैं
पक्षी स्वरों में गा रहे
तितलियां भी इतरा रही

Saturday, April 4, 2020

हरेक गली के हरेक द्वार पर मिलकर दीप जलाओ
अंधकार से भरी रात मे आशा की किरन ले आओ!!
आओ मिलकर दीप जलाओ .
एक दीप मेरा भी शामिल कर लो गर चाहो
अनजाने सारे रिश्तों कि मिलके डोर बनाओ !
एक हाथ मेरा भी शामिल कर लो गर चाहो
रुकती थमती सान्सो मे फ़िर से स्पन्द जगाओ
आओ मिलकर दीप जलाओ ..
खिलने से पहले जो कलिया तूफ़ानो से टूट गई
इतने मिले प्रहार जगत मे मुस्काना भी भूल गई
उन आँखो मे उम्मीदों की कोई आस जगाओ
एक आस मेरी भी शामिल कर लो गर चाहो.।
आओ मिलकर दीप जलाओ ..
उखडी सान्से बुझते जीवन की आस अभी है बाकी
कोइ आए हमे बचाए सब ताक रहे सङ्गी साथी
नयनो के पानी को थमने की उम्मीदें हे फ़िर जागी
घोर निराशा मे बढ़ने की हिम्मत अब भी हे बाकी।
आओ मिलकर दीप जलाओ ..
निराधार मन सोच रहा क्या दूर अभी सन्ध्या बेला
बुझती लो सी जिन्दगी की ये कैसी ईश्वर लीला.
स्वार्थ के संम्बधों का विश्वास ह्रदय ने झेला
सब के दिलो मे ज्योत जलाने आया एक अलबेला ।
आओ मिलकर दीप जलाओ ..

Thursday, April 2, 2020

Monday, January 14, 2019

Saturday, April 21, 2018

सपनों में ही सही
एक बार फिर
अपने घर हो आऊँ।
वो घर,वो दीवार,
वो ड्राइंग रूम,वो आंगन
वो रास्ते, वो स्कूल,
वो समोसे की दुकान,
वो गोलगप्पे का ढेला।
वो संगी,वो साथी बस
एक बार देख मैं आऊँ।
जी चाहता है कि
जोर जोर से गाऊँ,
बिन सुर के ही
खूब शोर मचाऊँ।
बाँध पैरों में घुंघरू
कत्थक की ताल पर
थिरकती जाऊँ।
फिर एक बार दरवाजे के
पीछे छुप कर खड़ी हो जाऊं,
कोई आये तो जोर से "भौ "
कह के डराऊँ।
जी चाहता है कि आईने में
मुँह तरह तरह के बनाऊं,
और खूब कहकहे लगाऊं।
जी चाहता है फिर पलंग
के नीचे जा छुप जाऊँ,
आवाज दे माँ रख आंखों पे हाथ,
तभी.............अचानक ,
धम्म.................से,
सामने उनके मैं आऊँ।
जी करता है आज फिर से
पकड़ उँगली माँ पापा की
रास्ते मे झूला झूलती जाऊँ,
उन्हें पता न चला ,
ये सोच के इतराऊँ।
कोई जो पूछे परिचय,
झट पापा का और माँ
का नाम बताऊँ।
न जाने कब लिया था
आखरी बार पापा
और माँ का नाम।
खो ही गई है अब
उनकी पहचान।
लगता है हम औरतों की
खुद के घर से नही रह
जाती कुछ पहचान।
अरसा हुआ नही पुकारा
अपनी जुबान से शब्द "माँ"
बस एकबार आ जाये सामने
तो चिल्ला चिल्ला के रोऊँ
जोर से गले लग मैं जाऊँ।
धुंधला गई है अब तो
शक्ल भी उनकी ,
खो गए न जाने कहाँ,
ये सोच सोच घबराऊँ।
रोके कहाँ रुकी है,
समय की गति ,
सोच यही, चुप हो जाऊँ।
चलूँ उठूँ काम मे लगूँ,
स्वप्न तो स्वप्न ही है
खुद को ही समझाऊं। 🙏🙏

Sunday, December 31, 2017

Monday, December 4, 2017

  1. 👌🏽👌🏽Bahut hi sundar kavita 👌🏽👌🏽
  2. *कंद-मूल खाने वालों से*
    मांसाहारी डरते थे।।
  3. ...
  4. *पोरस जैसे शूर-वीर को*
    नमन 'सिकंदर' करते थे॥
  5. *चौदह वर्षों तक खूंखारी*
    वन में जिसका धाम था।।
  6. *मन-मन्दिर में बसने वाला*
    शाकाहारी *राम* था।।
  7. *चाहते तो खा सकते थे वो*
    मांस पशु के ढेरो में।।
  8. लेकिन उनको प्यार मिला
    ' *शबरी' के जूठे बेरो में*॥
  9. *चक्र सुदर्शन धारी थे*
    *गोवर्धन पर भारी थे*॥
  10. *मुरली से वश करने वाले*
    *गिरधर' शाकाहारी थे*॥
  11. *पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम*
    चोटी पर फहराया था।।
  12. *निर्धन की कुटिया में जाकर*
    जिसने मान बढाया था॥
  13. *सपने जिसने देखे थे*
    मानवता के विस्तार के।।
  14. *नानक जैसे महा-संत थे*
    वाचक शाकाहार के॥
  15. *उठो जरा तुम पढ़ कर देखो*
    गौरवमय इतिहास को।।
  16. *आदम से आदी तक फैले*
    इस नीले आकाश को॥
  17. *दया की आँखे खोल देख लो*
    पशु के करुण क्रंदन को।।
  18. *इंसानों का जिस्म बना है*
    शाकाहारी भोजन को॥
  19. *अंग लाश के खा जाए*
    क्या फ़िर भी वो इंसान है?
  20. *पेट तुम्हारा मुर्दाघर है*
    या कोई कब्रिस्तान है?
  21. *आँखे कितना रोती हैं जब*
    उंगली अपनी जलती है
  22. *सोचो उस तड़पन की हद*
    जब जिस्म पे आरी चलती है॥
  23. *बेबसता तुम पशु की देखो*
    बचने के आसार नही।।
  24. *जीते जी तन काटा जाए*,
    उस पीडा का पार नही॥
  25. *खाने से पहले बिरयानी*,
    चीख जीव की सुन लेते।।
  26. *करुणा के वश होकर तुम भी*
    गिरी गिरनार को चुन लेते॥
  27. *शाकाहारी बनो*...!
  28. ज्ञात हो इस कविता का जब TV पर प्रसारण हुआ था तब हज़ारो लोगो ने मांसाहार त्याग कर *शाकाहार* का आजीवन व्रत लिया था।
  29. 🙏🌷🍏🍊🍋🍉🍓